Friday, November 2, 2018

आम आदमी – पंकज त्रिवेदी

          
आम आदमी – पंकज त्रिवेदी
*
अभी तो चलना होगा
शाम को जल्दी आ जाऊँगा
कुछ चीजें लानी है मार्केट से
तुम अकेली कैसे जाओगी?
बेटी पढती है बाहर तो बैंक जाना होगा
वो एटीएम से पैसे निकलकर फ़ीस भर देगी
छोटी भी कह रही थी, "पापा, दिवाली के बाद
मेरी फ़ीस भी भरनी होगी"
सुनो,
तुम शाम को तैयार ही रहना
जैसे ही आ जाऊं मैं चाय पीकर चलेंगे हम
और हाँ, पूरी लिस्ट बना लेना चीजों की
बारबार शहर की भीड़ में जाना अच्छा नहीं लगता
लगता है जैसे सभी एक-दूसरे को गिराकर
आगे निकलना चाहते हैं
ओह ! मैंने किसी पर आरोप लगा दिया
देश में आरोपों की राजनीति चल रही है
सारा दिन टीवी पर वोही कूड़ा-करकट
दिमाग खराब कर दिया सल्लों ने
पता नहीं दो रोटियाँ ही तो चाहिए
इंसान को पेट भरने के लिये और
ये लोग पैसे खा रहे हैं...
कल तक साईकिल नसीब न थी वो
आज आसमाँ को ताकने लगा है
अरे ! देर होने लगी भागो
आम आदमी है ..
बेटी ने आज ही कहा है
पापा, कईं दिनों से होटल में नहीं गये
आज चलेंगे न?
पिछले हफ्ते मैंने उसकी बात को उड़ा दी थी
कहा था; "दीदी हॉस्टल में रहकर पढती है
उस बेचारी को पता नहीं कैसा खाना मिलता होगा?
वो जब आयेगी तब जायेंगे" और छोटी मान गई
मगर आज फिर उसका मन हुआ -
छोटी जो है..
कुछ फास्ट फ़ूड या आईसक्रीम से मना लूँगा
खर्च भी कम होगा और वो मान भी जायेगी
यूँ तो समझदार है
आज का ट्रैफिक भी तो ... उफ्फ्फ़ !
हद्द है, किसी को कोई नियम लागू नहीं होता..
ज़िंदगी के पीछे हम भागते हैं या वो हमारे पीछे
कल ही बीमा करवा लिया है मैंने
पता नहीं इस देश में आम आदमी का कोई नहीं
अगर जीना है तो दो काम करो
गुंडागर्दी या राजनीति !
***
"आम आदमी" बनाम चिंता का यथार्थ
पंकज त्रिवेदी जी की कविता "आम आदमी" वस्तुतः पूरे भारत का समकालीन यथार्थ दस्तावेज है. एक औसत माध्यम वर्गीय परिवार अपने रोजमर्रा की जिंदगी में जिन कठिनाइयों का अनुभव कर रहा है, उसका एक वाजिव चलचित्र है. एक ऐसा परिवार जो अपनी बेटी की शिक्षा के लिए उसे बाहर तो भेज लेता है लिकिन खर्च अटाने का संकट बढ़ जाता है. कवि की चिंता दूसरी बेटी के प्रति भी न्याय करने की है. उसकी एक छोटी सी इच्छा है कि होटल या रेस्टोरेंट जाकर स्वाद परिवर्तित कर ले. या रोज-रोज के एकरस जिंदगी में थोडा मनफेर कर ले. लेकिन कैसे? दोहरे संकट उपस्थित हैं. पहला तो यह कि अभी बड़ी बेटी की फीस भरनी है और छोटी का भी फीस चुकाने का समय आ चूका है. दूसरा यह कि बाहर सड़क पर जो भीड़ है, उसमे निकलना, भीड़ को चीरते हुए बधन या फिर यह भी कह सकते हैं कि अपने को चिथाते हुए निकलना बहुत कठिन है. चिंता हो रही है परिवार के मुखिया को. भारत वर्ष की सड़कें गरीब औरत की तरह दिनोंदिन दुबली हो रही हैं और राहगीर मनचलों की तरह उसे रौंद रहे हैं. देश आजाद हुआ था तो जनसंख्या मात्र २४ करोड़ थी, आज बढ़कर १२४ करोड़ हो गई है. जहाँ सड़क पर तब एक आदमी चलता था, उस पर पांच लोग चल रहे हैं. उस पांच में एक बड़ा आदमी है जो तंग सड़क पर बड़ी गाडी में दर्जन भर लोगों की जगह में अकेले सवार हैं. उससे भी बचाना है चार लोगों को. इसमें से तीन लोग आदमी जैसे लग रहे हैं, लेकिन पशु अधिक हैं आदमी कम. इन एक और तीन के बीच फंसा एक औसत जीवन स्तर का आम आदमी.
कैसे निकले सड़क पर. आज की तारीख में किसी भी सड़क पर निकलना किसी बड़े जोखिम से कम नहीं है. कदम-कदम पर अड़चने खड़ी हैं. कहाँ तो पहले से आधी सड़क ठेला, सब्जी, खोमचा गाडी, बड़े लोगों की गाडी, मनचलों की बीच सड़क तक जमी चौकड़ी, और कहाँ एक संभ्रांत परिवारदार व्यक्ति के साथ चलने वाली युवा बेटी और पत्नी. कैसे गुजरे. आम आदमी घर में कैद रहने को विवश है. इसी के भीतर छिपा है एक दर्द. घर से निकले बिना कैसे देख सकेंगे बाहर की दुनिया. उगता हुआ सूरज, एकांत शून्यता में प्रकृति के साथ बैठकर खुद से आत्मालाप, मन को प्रकृति में पिरोने का आनंद! कवि की न बड़ी, न छोटी, बीच की आम आदमी जैसी कविता समकालीन जीवन के सच को एक साथ अनेक रूपों में ले कर खड़ी है.
बेहतरीन कविता के लिए पंकज त्रिवेदी को बधाई. जैसा कि एनी सन्दर्भ में भी कह चूका हूँ कि पंकज जी के साहित्य की सबसे बड़ी विशिष्टता है भाषा की मितव्ययिता. न जरूरत से ज्यादा और न जरूरत से कम. एक आवश्यक व्यय. आम आदमी की ही तरह. जैसे निर्धारित आय को पूरे होमवर्क के साथ बाँट रहा हो. जायज हिस्सों के बाँट रहा हो. कुछ यूं कि सभी को पूर्ण तृप्ति भी मिल जाए और फिजूलखर्ची भी न होने पाए. बिना संस्कृत निष्ठता के प्रदर्शन के. अभिजात्य ज्ञानबोध के प्रदर्शन के. सब कुछ सहज और पारदर्शी.

                                                                                                                     डा० रमा शंकर शुक्ल

2 comments:

  1. आदरणीया अभिलाषा जी, आपका बहुत आभारी हूँ कि आपने मेरे ब्लॉग तक आकर अपनी प्रतिक्रिया भी दी|

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  2. आम-जन की सजीव कविता; बढ़िया!

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