Wednesday, January 30, 2019

हम भी मन ही मन

 























सपना ही सही
तुम चुपके से आती हो

देखती हो मुझे कविता लिखते
बिना शोर किए, खुशी से क्यूंकि
तुम हमेशा चाहती हो कि
मैं निरंतर लिखता रहूँ

तुम्हारा मौन भी मेरे लिए
बहुत बड़ा संबल है

कईं बार हम ऐसे जी लेते हैं
अपनी ज़िंदगी जिसमें सिर्फ
एक दूसरे की खुशी में ही
अपनी खुशी मान लेते हैं

और जब एक दूसरे की आँखों में
देख लेते हैं तो खुशी से नमीं
छलकती है और हृदय खुशी से
झूमता है और हम भी मन ही मन !
*
पंकज त्रिवेदी
30 जनवरी 2019

Saturday, January 19, 2019

‘समय’ का पर्याय भानुभाई शुक्ल - पंकज त्रिवेदी

19 जनवरी 2019 : अखंड राष्ट्र (दैनिक)
लखनऊ और मुंबई -मेरा स्तम्भ - प्रत्यंचा
*
कांग्रेस को कोसने वाले कटघरे में खड़े हो जाएंगे - पंकज त्रिवेदी
दो वर्ष पूर्व फेसबुक पर बचपन का मित्र राजेन शुक्ल दिखाई दिया। मैंने उसे मैसेज दिया और उतनी ही गर्मजोशी से उनका प्रत्युत्तर मिला था। हमदोनों मित्र रहें। माध्यमिक कक्षाओं में वो मेरे से एक वर्ष पीछे था। एक साम्यता थी हमदोनों में... क्रिकेट का ज़ुनून। बहुत कम बातें होती थी मगर आत्मिक स्नेह-सम्मान खूब। राजेन के पिता स्वार्गीय भानुभाई शुक्ल प्रखर गांधीवादी। गांधीजी और महर्षि अरविंद के विचारों को वो केवल पढ़ते नहीं थे, जीते भी थे। भानुभाई शुक्ल गुजरात के सुरेन्द्रनगर जिले के पत्रकारात्व में सबसे पहली पायदान का नाम। प्रखर एवं मुखर पत्रकार। जिन्हों ने इस जिले में ‘समय’ शीर्षक से पत्रकारात्व की एक नई दिशा खोल दी।
शायद पिछले महीने ही एहमद पठान मिल गया था। ख़ूब बातें हुई थी। एहमद और राजेन भी करीबी मित्र। एहमद के पिताजी और बड़े भाई निज़ामभाई के पास मैं पढ़ता था। यही सब कारण थे कि हम तीनों की दोस्ती बहुत कम मिलने पर भी अटूट रही। एहमद ने कहा कि – अमरीका से राजेन आया है। स्वाभाविक ही मेरी उत्सुकता बढ़ी। एहमद ने कहा मैं उनको आपका नंबर देता हूँ। वो आपसे बात करेगा। मित्रता में उम्र देखी नहीं जाती मगर एहमद और राजेन ने मेरी उम्र का लिहाज़ हमेशा रखा है। राजेन का कॉल आया और बचपन की दोस्ती जहाँ स्थित थी वहीं से मानों संवाद के तार जुड़ गए। दोनों में कहीं कोई ज्यादा फोर्मलिटी नहीं थी। बोला आप कहो तब मिलेंगे हम। दूसरे दिन हमदोनों ‘समय’ साप्ताहिक के ऑफिस पर मिले।

ऑफिस में प्रवेश करते ही ‘भाई’ यानी श्री भानुभाई शुक्ल की बड़ी सी तसवीर दिखाई दी, दूसरी और मानों खुद युवा भानुभाई ही बैठे हों ऐसा दिल से महसूस हुआ। वोही तो राजेन था। अद्दल भानुभाई की प्रतिकृति। वैसा ही चेहरा, लम्बे बाल और नमीं भरी आँखों पर चश्मे । मुझे देखते ही – ‘आवो पंकजभाई...’ कहते स्वागत किया और खड़ा हो गया। हमदोनों गले मिले। उनकी साँसों में अब भी वतन की धड़कन सुनाई दी। सालों से अमरीका में रहने के बावजूद वोही सरल-सहजता ने भानुभाई के संस्कार को बरकार रखा है। भाई के जाने के बाद उनके सहयोगी विरम डाभी ने ‘समय’ साप्ताहिक को संभाला है। राजेन उन्हीं के साथ ‘समय’ के बारे में चर्चा कर रहा था।

भानुभाई शुक्ल की जन्म शताब्दी चल रही है। उन्होंने सुरेन्द्रनगर जिले में 69 वर्ष पूर्वे ‘समय’ साप्ताहिक का आरंभ किया था। उनका उद्देश्य था कि दूर-दराज़ के गाँवों में बसते लोगों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाना।
उन समस्याओं को हल करने और सामाजिक संस्थानों की प्रवृत्तियों को भी उजागर करना। जब भी किसी गाँव में दुःख की घटना होती तो भानुभाई खुद जाकर पीड़ित परिवार से मिलते। उनके पास बैठकर दुःख को बाँटते। उस परिवार के लिए जो भी सरकारी, आरोग्य एवं सामजिक मदद की आवश्यकता पूर्ण करते। भानुभाई खुद भी कई सामाजिक संस्थानों में सेवारत थे। उस ज़माने में पीड़ित बहन-बेटियों के लिए ‘विकास विद्यालय, वढवाण’ में आश्रय और शिक्षा दिलाते। शहर में सेवा भेखधारी श्री नागजीभाई देसाई एवं श्रीमती शांताबहन देसाई ‘बालाश्रम’ चलाते हैं। वहीं अनाथ बच्चों को प्रवेश देकर उनकी शिक्षा का प्रबंध किया जाता था। शहर में कई जैन अग्रणीओं के सहयोग एवं सरकारी ग्रांट से ये सारी संस्थाएं चलती थी। भानुभाई शुक्ल ने ‘समय साप्ताहिक’ को अपने बलबूते पर इस जिले का प्रथम अखबार बनाया।

मेरे पिता गुजराती कवि थे। अमृत त्रिवेदी ‘रफ़ीक’। इसी जिले के लीमली गाँव में वो सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे। ये वोही लीमली गाँव हैं जहाँ देश के प्रखर दर्शनशास्त्री पंडित सुखलाल जी का जन्म हुआ था। मुझे याद है, उस ज़माने में पंडित जी मुम्बई रहते थे। मेरे पिताजी ने गाँव के लोगों के बीच एक प्रस्ताव रखा था। गाँव की स्कूल को ‘पंडित सुखलाल जी विद्यालय’ नाम दिया जाएं। सभी सहमत हुए। उस नामकरण के समय गुजरात के तत्कालीन राज्यपाल श्रीमन्नारायणन पधारे थे। सुरेन्द्रनगर जिला होने के कारण सरकारी पदाधिकारी, राजनीतिज्ञ, राज्य के पत्रकार आदि उपस्थित थे।

भानुभाई शुक्ल और मेरे पिताजी को जोड़ती कुछ कड़ियाँ थी। दोनों गांधीजी और महर्षि अरविंद के विचार से प्रेरित थे। गुजराती कवि सुन्दरम् और साहित्यकार दिलीप राणपूरा भी उनमें थे। मेरे पिताजी गाँव में आती एक ही बस के कंडक्टर के साथ समाचार लिखकर भानुभाई को भेजते। इस तरह से दोनों के बीच मैत्री और सदभाव था। कभी गाँव में कोई घटना होती तो भानुभाई जीप कार लेकर आते। गाँव में प्रवेश करते ही विद्यालय प्रांगण। उसीमें सरकारी क्वार्टर में हम रहते थे। भानुभाई आते, मेरे पिताजी से मिलते और दोनों गाँव में पीड़ित के घर जाते। सहृदय से उस परिवार को आश्वासन देते और उनकी दुविधा को समझते। हर प्रकार से उनकी मदद करते।

भानुभाई केवल पत्रकार नहीं थे। वो अच्छे साहित्यकार और चित्रकार भी थे। वो आध्यात्मिक फिलोसोफी को खूब समझते थे। वो ब्राह्मण होते हुए कभी कर्मकाण्ड में नहीं मानते थे। उन्हें तो धुन थी कि पत्रकारात्व के माध्यम से किसान, पिछड़े वर्ग के लोगों और मरीजों के दर्द को बाँटना था। संस्थानों के माध्यम से गाँवों के बच्चो को शिक्षा मिले उसके लिए कार्य करना था। भानुभाई ने कभी ‘यलो जर्नलिज़म’ के बारे में सोचा भी न था। उन्हों ने सिर्फ अपने जिले के आम जन की आवाज़ उठाई थी। उनके अधिकारों के लिए लड़ते रहे। मज़दूरों के प्रश्नों भी उठाया। भानुभाई के जाने के बाद उनके अग्रज सुपुत्र श्री राहुल शुक्ल ने गुजरात में ‘साहित्य-कला चंद्रक’ (एक लाख) और स्थानीय साहित्यकार-पत्रकार, शिक्षक या समाजसेवी के लिए 20 हज़ार का पुरस्कार देना शुरू किया है। आझादी के बाद भानुभाई शुक्ल इस जिले में प्रहरी बनकर पत्रकारात्व करते रहें। उन्हें लोग न भूले हैं, न भूलेंगे।

* * *
 

Thursday, January 17, 2019

पुरानी किताबें










पुरानी किताबें
पुरानी हस्तप्रत
पुराने हिसाबों की सूची
पुराने रिश्तों की महक

रद्दी में डालने से पहले
सोचा एक नज़र देख लूं

मोतियों से अक्षरों में
उभरता हुआ चेहरा
नज़र आया और बस
देखता रह गया मैं जैसे

बालों में फूल सजाकर
नाचती हुई आती थी
आँखें नचाती वो परी

अंकल, मैंने कविता लिखी
आँखों से टपकती बूंदों में
 धुँधला हो गया उसका चेहरा

मेरे हाथ में पीला सा कागज़
मोतियों से अक्षरों में उभरी
वो कविता और उसका चेहरा

शायद अब मेरे हाथ में
यही तो बच पाया है और दिल में
उसकी मासूम सी हँसी !

- पंकज त्रिवेदी

Saturday, January 12, 2019

प्रत्यंचा : 12-01-2018 : सेंट वेलेंटाइन डे : प्यार से मोक्ष की यात्रा - पंकज त्रिवेदी

ईसाई और ईसाई-प्रभावित संस्कृतियों से जुड़े हुए लोग वेलेंटाइन डे मनाते थे। इस दिन प्रेमी एक दूसरे से अपनी भावनाएं व्यक्त करते है। इस उत्सव के लिए भारत में समर्थन भी है तो कुछ लोगों में पश्चिमी अनुसरण के सन्दर्भ में गुस्सा और घ्रीना भी है। मगर इन सारी बातों का एक ही मंत्र है- प्यार । वास्तविकता तो यह है कि भारत ही ऐसा देश है जो प्यार से ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ कह सकता है, जो मूल रूप से प्यार की नींव पर ही है। फिर भी कुछ लोग इस परंपरा का विरोध करते हैं ऐसा माना जाता है कि वेलेंटाइन-डे मूल रूप से संत वेलेंटाइन के नाम पर है। परंतु सेंट वेलेंटाइन के विषय में ऐतिहासिक विभिन्न मत हैं और कुछ भी सटीक जानकारी नहीं है। 1969 में कैथोलिक चर्च ने कुल ग्यारह सेंट वेलेंटाइन के होने की पुष्टि की और 14 फरवरी को उनके सम्मान में पर्व मनाने की घोषणा की। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रोम के सेंट वेलेंटाइन माने जाते हैं।

1260 में संकलित कि गई 'ऑरिया ऑफ जैकोबस डी वॉराजिन' नामक पुस्तक में सेंट वेलेंटाइन का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार शहंशाह क्लॉडियस के शासन में सेंट वेलेंटाइन ने जब ईसाई धर्म को अपनाने से इंकार कर दिया था, तो क्लॉडियस ने उनका सिर कलम करने के आदेश दिए। कहा जाता है कि सेंट वेलेंटाइन ने अपनी मृत्यु के समय जेलर की नेत्रहीन बेटी जैकोबस को नेत्रदान किया व जेकोबस को एक पत्र लिखा, जिसमें अंत में उन्होंने लिखा था 'तुम्हारा वेलेंटाइन'। यह दिन था 14 फरवरी, जिसे बाद में इस संत के नाम से मनाया जाने लगा और वेलेंटाइन-डे के बहाने पूरे विश्व में निःस्वार्थ प्रेम का संदेश फैलाया जाता है।

संत वेलेंटाईनने भले ही प्यार का सन्देश दिया हो भारत में आचार्य रजनीश-ओशो ने भी यही संदेश दिया था। मगर उनकी सोच बेबाक थी। प्यार के नाम पर खुश होने वाले सेक्स के नाम से मुंह फुलाने लगते है। मगर कोइ भी इससे परे भी तो नहीं ! यह बड़ा ही सुखद आश्चर्य भी है। ओशो ने प्यार के साथ मानव मन का गहन विश्लेषण किया है। जो जितना खींचता हैं, आकर्षित करता है, उसे पा लेने से वो उतना ही मुक्ति पाने में आसान बन जाता है। कुछ पाने की चाह में जीना बड़ा ही अच्छा लगता है, मगर पा लेने के बाद आपके पास कोई चाह नहीं रहती। फिर उसके ज़रिये मुक्ति का आनंद प्राप्त करने का अवसर भी मिलता है! संतुष्टि के बाद उब जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह उब जाना ही मुक्ति मार्ग है।

हमारी संस्कृति में भर्तृहरि ने चार शतक लिखे है- नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक और विज्ञानशतक । भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक में स्त्री का पूर्णरूप से वर्णन किया है। हमारे ग्रन्थ कामशास्त्र में भी यही वर्णन है। मतलब यही कि हमारी प्राचीन संस्कृति में प्यार और सेक्स को अगर बुराई माना गया होता तो खजुराहो के शिल्प की रचना ही नहीं होती ! इसे विज्ञान और मनोविज्ञान के नज़रिए से देखें तो सारी बातें समझ में आती हैं।

वेलेंटाईन डे का विरोध करने से पहले उस उत्सव को मनाने की विकृत चेष्टा के खिलाफ जरूर विरोध करना चाहिए।

भर्तृहरि के श्रृंगारशतक में से यह एक ही श्लोक हमें सारा तत्वज्ञान सीखाता हैं -
ll एकी रागीशु राजते प्रियातामादेहार्धहारी हरोनीरांगेश्वपि यो चिमुक्ताललनासंगो न यस्मात्पर: ।
दुवार्रस्मरबाणपन्नगविषज्वालावलीढो जन: l शेष: कामविडाम्बितो हि विषयान्भोक्तुं न मोक्तुं क्षम: ||
अर्थात- रागी (संस्कार में आसक्त) पुरुषों में एक शंकर-शिव ही विराजमान है, क्यूंकि उन्हों ने अपनी प्रिया का अर्ध शरीर को हर लिया है और वैराग्य धारण करने वालों में भी स्त्री संग का त्याग करने वाले शिव ही विराजमान है। क्यूंकि शिव से बड़ा कोइ कामी पुरुष निवारण हो ही न सकें, ऐसे काम के बाणरूपी सर्प की ज़हरीली ज्वाला से विषय को भोगने के लिए मुक्त करने के लिए समर्थ नहीं, सिर्फ शिव ही समर्थ है। अभिप्राय - पार्वती के साथ विवाह होने से पहले मोह करने आये हुए कामदेव को शिव ने जलाकर भस्म किया है (यानी विजय प्राप्त किया है), इसीलिए शिव वैराग्य में भी शोभायमान है।

जब आप किसीको बहौत ही प्यार करने लगते है तो वो कामदेव की छाया जरूर है मगर धीरे धीरे उसी से उठकर मुक्ति और मार्ग की राह ही मिलेगी। अगर काम नहीं होता तो सृष्टि का सृजन ही कैसे होता? प्यार की सच्चाई के आधार पर ही काम और काम से आगे मुक्ति या मोक्ष की गति तक उठाना ही इंसानी धर्म है। मगर हम उस पर कहाँ तक खरे उतरते है वो हमारे संस्कार और विचारों पर निर्भर होता है। कीचड में भी कँवल अपनी पूर्णता साबित कर पाता है तो इंसान प्यार और नफ़रत की संकुचित मानसिकता के बीच झूलता हुआ नज़र आता है। प्यार को अगर पवित्र मानकर उसकी गरिमा के साथ आत्मसात किया जाएँ तो मुक्ति-मोक्ष के द्वार अपने आप दिखाई पड़ते है। गुलाब का एक फूल देने से न विकृति प्रकट होती हैं न प्यार भी... उसे सिर्फ एक प्रतीकात्मक रूप दिया गया है। मगर आज का दिन सच में प्यार की पूजा करने का उत्सव है। उत्सव को कैसे मनाएं यह प्रत्येक व्यक्ति का स्वतन्त्र अधिकार भी तो है ! शुभकामनाएँ।

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Saturday, January 5, 2019

कांग्रेस को कोसने वाले कटघरे में खड़े हो जाएंगे

05 जनवरी 2019 : अखंड राष्ट्र (दैनिक)
लखनऊ और मुंबई -मेरा स्तम्भ - प्रत्यंचा
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कांग्रेस को कोसने वाले कटघरे में खड़े हो जाएंगे - पंकज त्रिवेदी
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विश्व की चर्चित कहानियां नामक पुस्तक में विश्व की विविध भाषाओं का हिन्दी अनुवाद श्री सुशांत सुप्रिय ने किया था। उनमें से एक कहानी, ‘दुख’ का एक अंश :

कोचवान योना मुड़कर अफ़सर की ओर देखता है। उसके होंठ ज़रा-से हिलते हैं। शायद वह कुछ कहना चाहता है।
‘क्या कहना चाहते हो तुम?’ अफ़सर उससे पूछता है।
योना जबरदस्ती अपने चेहरे पर एक मुस्कुराहट ले आता है और कोशिश करके फटी आवाज में कहता है, “मेरा इकलौता बेटा बारिन इस हफ्ते गुज़र गया साहब!”
“अच्छा, कैसे मर गया वह?”
योना अपनी सवारी की ओर पूरी तरह मुड़कर बोलता है, “क्या कहूं साहब, डॉक्टर तो कह रहे थे सिर्फ तेज़ बुखार था...”
“...जरा तेज़ चलाओ घोड़ा...और तेज़...” अफ़सर चीख़ा। “नहीं तो हम कल तक भी नहीं पहुंच पाएंगे! जरा और तेज़!” ...कोचवान बीच-बीच में कई बार पीछे मुड़कर अपनी सवारी की तरफ देखता है, लेकिन उस अफ़सर ने आंखें बंद कर ली हैं। साफ़ लग रहा है कि वह इस समय कुछ भी सुनना नहीं चाहता।
...कोचवान बेहद बेचैन होकर खड़ी भीड़ को देखता है, गोया कोई आदमी तलाश रहा हो, जो उसकी बात सुने। पर भीड़ उसकी मुसीबत की ओर ध्यान दिए बिना आगे बढ़ जाती है। उसका दुख असीम है...उसे कोई नहीं देखता।”

कुछ ऐसा ही है। कुछ लोगों को बाद करते हुए सभी भारतीय चाहता है कि अयोध्या में शीघ्र ही राममंदिर बने। 2014 में पूरे देश ने इसी मंशा के साथ भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर सत्तर साल पुरानी कांग्रेस और अन्य दलों को हाशिये में धकेल दिया था। एक समय आ गया कि कांग्रेस अब कभी उभर नहीं पाएंगी। राममंदिर की आस में ही 2018 तक देश की जनता भाजपा पर पूर्ण विश्वास से भरी हुई थी। मोदी जी ने विश्व में भारत का नाम रोशन किया है और न जाने आगे क्या क्या करने वाले हैं। हर चोरेचौटे पे यही चर्चा थीं। भाजपा के खिलाफ एक भी शब्द सुनने को कोई तैयार न था। मगर जैसे जैसे लोकसभा चुनाव 2019 नज़रों के सामने आने लगा तब देश के साधु-संतों ने अपनी आवाज़ बुलंद कर दी। यहाँ तक कि राममंदिर के मुद्दे पर संघ ने भी दो टूक कह दिया कि राममंदिर पर शीघ्र ही ठोस कदम उठाने होंगे। साथ में विश्व हिन्दू परिषद् एवं देश की जनता का भी दबाव बढ़ने लगा।


पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह को मौनी बाबा कहने वाले मोदी जी खुद मौन हो गए और जब बोलते तब ‘मन की बात’ ही बोलते। अब देश की जनता को उनके मन की नहीं, अपने मन की बात सुनानी है। आखिरकार श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सवाल-जवाब तैयार करवाकर साक्षात्कार दिया तब देश के मीडिया ने और जनता ने उस साक्षात्कार में एक ही लाइन सुनना चाही थी, वो थी कि – हम अध्यादेश संसद में पारित करके राममंदिर शीघ्र ही बनाएंगे। मगर ऐसा न हो पाया और मोदी जी फिसड्डी हो गए। उन्हों ने साफ़ कह दिया कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अध्यादेश लाने का अभी कोई इरादा नहीं है। इसी बात पर देश में हर जगह और मीडिया में उसी मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गई कि मोदी जी ने मेनिफेस्टो में राममंदिर का मुद्दा दिया था और लोग विश्वास जताते हुए इंतज़ार में थे। इस साक्षात्कार के साथ देश के साधु-संतो और जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। अब सुप्रिम कोर्ट ने 10 जनवरी तक सुनवाई टाल दी है। अब इंतजार है कि कोर्ट राममंदिर के पक्ष में फेंसला सुनाती है या नहीं। अगर फेसला विपरीत आया तो मोदी जी का प्रधानमंत्री पद तो जाएगा ही, साथ ही भाजपा का नामोनिशान मिट जाएगा।

कांग्रेस को कोसने वाले कटघरे में खड़े हो जाएंगे और देश में राममंदिर के नाम अराजकता फ़ैल जाने का भी अंदेशा भी नकार नहीं सकते। वर्त्तमान स्थिति अनुसार राममंदिर के नाम चुनाव में वादे करने वाले मोदी ने देश की जनता को भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल किया है। ऐसा लगता है कि मोदी जी राममंदिर के चक्रव्यूह में ऐसे फंस गए हैं, जैसे वो कांग्रेस को अपनी फेंकबाज़ी से चक्रव्यूह में लेकर बेकफूट पर धकेल आए थे। अब मोदी जी के सारे जुमले अब उनके गले की हड्डी बनकर चुभ रहे हैं। हमेशा घमंडी तौर और ऊंची आवाज़ में बात करने वाले मोदी जी साक्षात्कार के समय इतने विनम्र हो गए थे कि लगें यह मोदी जी ही नहीं हैं। झूठ का एक समय होता है, वो सत्य को प्रताड़ित कर सकता है मगर हरा नहीं सकता। मोदी जी का झूठ अब सर पे चढ़कर बोल रहा है। अब तो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय जो भी आएं, मगर अंतिम समय पर अध्यादेश को संसद में पारित नहीं कर पाएं तो मोदी जी तो चुपके से झोला लेकर चल पड़ेंगे। बाद में भाजपा के प्रवक्ताओं को नौकरी कौन देगा? देश इस जुमलेबाज़ी से थक चूका है। झूठे वादे और जनता को नोटबंदी तथा जीएसटी की मार का बदला लेना होगा। धनवानों की भाजपा सरकार को देश की जनता 2019 में ऐसा सबक सिखाएगी कि दुबारा चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं होगी। राजनीति का खेल निराला है, राहुल को बेशर्म कहने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं। 
* * *


Friday, January 4, 2019

तुम जब भी चाहो

तुम जब भी चाहो
छूकर महसूस करो
मेरे मन को, तन को

छूकर महसूस करना
चर्म स्पर्श का सुख है
वो मन से ज्यादा लिए है

छूकर महसूस करना
हमारी बुढी माँ के हाथों का
लचीला चर्म स्पर्श जब भी

हमारा मासूम सा बच्चा
जिज्ञासा-विस्मय मिश्रित
आँखों में प्रश्न ले आता है

तब महसूस होता है कि
हमारा पौत्र ऐसे ही महसूस
कर पाएगा हमारे चर्म को?

पीढ़ियाँ, रहन-सहन, संस्कार
सब बदल रहा है छत के नीचे
चर्म से नहीं सीखते हम कभी

समय के साथ लचीलेपन का
स्वीकार करना और ढूँढते हैं
कमियाँ जो नहीं सह पातें हम !

***

खेल

कितना कुछ जान लेती हो तुम मेरे मन को

मेरे कुछ बोलने, न बोलने से ज्यादा मेरे मन के
भीतर तक पहुँच जाती हो तुम...!

एक एक सलवटों से मन के कोने से तुम
हर वो बात को जान लेती हो जो मेरे सुषुप्त मन की
गहराई में गड़ा है वो भी... !

तुम्हारा होना ही मेरी ज़िंदगी का सपना था और
जब तुम हो तो लगता है कि मुझसे ज्यादा ही तुम
मुझको जानने लगी हो... !

याद हैं तुम्हें कि उस रोज तुमने ही मेरे टूटे से दिल को
अपने प्यार के कच्चे धागों से पिरोया था और आकर
तुमने कहा था, लो ये दिल है... !

मैं देखता रहा था और तुम मुस्कुराती हुई कहती थी
अब कभी न टूटेगा तुम्हारा दिल, मैंने ही उन टुकडों को
जोड़ा है फिर से न टूटने के लिए...!

और तुम कितने ग़मों को संजोकर भी मुस्कुराती, मोरनी सी
नाचती थी मेरे पास और मैंने भी जान लिया था कि मेरी ही तरह
तुम भी टूटे दिल को सहलाती थी... !

यही ज़िंदगी हैं जिसके लिए हमें जीना होगा वो - 'तुम हो !'
यही कहते हुए दोनों कितने समर्पित हैं एक-दूजे के लिए
दुगनी ऊर्जा से सभर, रिश्तों की जड़ से जुड़े हुए
जान पे खेलने को तैयार हैं हम... !

गज़लाष्टमी - सॉलिड महेता (गुजराती ग़ज़ल संग्रह)

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