Sunday, February 10, 2019

मन के भीतर - पंकज त्रिवेदी
















तुझसे न मिलने की कसम यूँ खाकर भी 
राह के हर पत्थर से पता पूछते रहें हम

पत्थरों की बस्ती में जीने की आदत अब 
सख्त तन में प्यार का झरना बहातें हम 

ठोकरों का सिलसिला चलता भी रहा तो 
गिरकर संभलते और राह चलते रहें हम

मैं अकेला हो गया हूँ तो भी क्या हुआ अब 
मन के भीतर कारवाँ बहता लेकर चले हम 

*

ये कैसे पल हैं?













ये कैसे पल हैं? जो एक पल में सुकून दें और एक पल में ज़ख्म दें. 
पलट जाती हैं कभी भी सिक्के की तरह, ज़िंदगी भी कैसे रंग बदलती है...

कभी तुझमें खोजती है मुझे और कभी मुझमें खो जाते हैं ये अपने ही रिश्ते. 
हर दिन कोई नया जुड़ जाता है जन्म लेकर और कोई छूट जाता हैं सालों का साथ निभाते हुए...


खड़ा हूँ मैं इंतज़ार में.... असंजस की धुन्द ओढ़े हुए...
*
पंकज त्रिवेदी

Monday, February 4, 2019

कैसे ख़त्म हो पाएगा...?










इंतज़ार भी अब मानों ख़त्म हो गया है
ऐसा मन को मनाने में बरसों बीते
चलो, अच्छा हुआ, अब मान भी लिया

आँखें कमज़ोर,
याददास्त भी आती-जाती
काँपते हाथ में छडी का सहारा

चेहरे की चमक पे झुर्रियाँ
सिर्फ यादों के सहारे बीतते दिन
इंतज़ार ख़त्म हो गया है, कह दिया

इंतज़ार इंसान के जीवन में
ख़त्म नहीं होता कभी भी
पल पल बड़ा होता जाता है

प्यार की गहराई में डूबता हुआ इंसान
चाहें कितना भी कोशिश कर लें
इंतज़ार जब होता है अपनों का

कैसे ख़त्म हो पाएगा...?
*
पंकज त्रिवेदी

आज की शाम - पंकज त्रिवेदी


















आज की शाम
उन सभी शामों की सूचि में शामिल हो गई
ठीक उसी समय खिडकी के आगे बैठना
दूर दूर तक फैला हुआ सा मैदान और मैं
मेरी तरसती आँखें और...
'हाँ ! तुम जरूर आओगी" का इंतज़ार !

आज की शाम
बोझिल सी, थकी सी अनचाहें पलों का
बोज बनकर दबे पाँव सरक रही है
मेरी ओर धीरे धीरे .........
इंतज़ार के पल में घूल जाती है बेसब्री
आशंका और कुछ हद तक छुपा हुआ डर

आज की शाम
सोचा था कर दूं तुम्हारे नाम और
यही सोचकर हर शाम डूबते हुए सूरज को
देखता हूँ हर दिन एक नए सूरज को मैं खुद
अपने हाथों से बहा देता हूँ समंदर के पानी में
मेरे हाथों में अब वो जलन ही कहाँ बच पाई है
जो पहले दिन की शाम तुम्हारे इंतज़ार में
सूरज को हाथ में लेकर मैंने ही उसे डूबो दिया था

आज की शाम
सोच तो वोही पुरानी है, भरोसा है तुम पर कि
'हाँ ! तुम जरूर आओगी" - मगर मेरे अंदर से
हर दिन मेरे अस्तित्व का एक एक पूर्जा
टूटने लगा है और मैं झुकने लगा हूँ जैसे
बेबस वृद्धत्व का बोज उठाकर चलता हुआ आदमी !

आज की शाम
सूरज खुद ढलने लगा है कुछ असमंजस सा
मुझ से नज़रें चुराता हुआ जल्दी से पलायन होने को
और मैं भी आँखों को मूंदकर बैठा हूँ
अब न सूरज को डूबना होगा और न तुम्हारे आने का
इंतजार होगा कहीं भी.....

चाहें कितना भी टूट जाऊँ मैं अंदर से हर दिन
मगर तुम जानती हो कि मेरी रूह कभी मुझे
बिखरने नहीं देती और मैं बिखरने से पहले
एक बार फिर से खड़ा हो जाता हूँ आने वाले
कल की उस शाम के इंतज़ार के लिए
जो तेरे इन्तजार के लिए मैंने
संजोकर रखी हुई है आज भी !
***




Saturday, February 2, 2019

मुक्तक














बात केवल ज़बानी नहीं करती थी वो
नज़रें टिक जाती मुझ पर और थी वो

कितना उमडता था भावों का समंदर
कभी चमक या आँसूं से बहती थी वो 


- पंकज त्रिवेदी

झील


















मेरे अंदर एक झील है जैसे
यादों की झील जो मेरे लिए
संजीवनी बनकर हमेशा मुझे
प्रेरित करती रहती है और
अपने निर्मल जल से हर बार
पवित्र रखती है तुम्हारे लिए

इसी झील के किनारे होती थी
तुम्हीं से प्यार की कुछ बातें और
निभाते थे प्यार की नोंकझोंक भी
तुम्हारे मेरे बीच न जाने कितना कुछ
बदलता रहा था अंदर-बाहर से
आँखों के जंगल ने हमारी ज़िंदगी के
न जाने कितने पलों को नोंच लिया था
और भीड़ से बारीबारी उभरकर आते थे
वो लोग उन्हीं में से हमारे कंधे पर
हाथ रखकर कहते, हम है तुम्हारे साथ

तुम जानती हो कि कौन साथ होता है
मगर हम इस 'कौन' के चेहरे को कभी
परख न सकें और न समझ पाएं कि
किसपे भरोसा करें हम और टूटते रहे
बिखरने लगा हमारा आभामंडल और
वो इंतज़ार करते रहे जबतक हम न
बिछड जाएँ... उनका सपना सही हुआ

आज मैं हूँ, झील है और किनारा भी
वो यादें है, वो बातें है और तुम्हारा वो
निर्मल जल सा अस्तित्व चमकता है
मेरे प्यार के सूरज की किरणों से और
मैं चकाचौंध होकर आँखें मूँद लिए
बैठा रहता हूँ दिन-रात झील के किनारे

***

गज़लाष्टमी - सॉलिड महेता (गुजराती ग़ज़ल संग्रह)

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