Tuesday, April 16, 2019

ग़ज़ल
















सियासती दांवपेंच में आवाम खो जाती है
बंद कमरों में चीखें भी कभी सो जाती है

अखबार भी कितने मजबूर हो गए है
ख़बर कुचलकर तारीफ़ की जाती है

अख़बार भी सिकुड़कर बैठ गया है
लगता किसी पे लगाम लगाई जाती है

देश की आझादी के मायने बहुत है
बाहरी नहीं अपनों से पाबंदी लग जाती है

श्याम रंगी सियाही तो कागज़ श्वेत रहा
ख़ुशहाल ज़िंदगी डरकर दब जाती है

चंद हाथों में सत्ता का सिमट जाना यूँ
कलम के बंदों की तौहीन हो जाती है

तुम आवाज़ भी कैसे उठाओगे यहाँ
कौन सुनेगा झूठ की नदी बह जाती है
*
पंकज त्रिवेदी
17 अप्रैल 2019


6 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर¡
    तंज भी कटाक्ष भी खरा खरा।

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  3. बहुत सुन्दर ...समसामयिक..।

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  4. अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ कहने भर को है। कहाँ सारा सच सामने आ पाता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस, वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। सटीक अभिव्यक्ति।

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  5. तुम आवाज़ भी कैसे उठाओगे यहाँ
    कौन सुनेगा झूठ की नदी बह जातीहै
    आजकल के हालात पर संही पंक्तियों के साथ ये शानदार हैं आदरणीय पंकज जी | सादर =

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