पल छूटता चलता है
मगर मन नहीं
पल में मिला देता है
पल में बिछड़ जाता है
ये कैसा पल है जो
लौट-लौटकर आता है
जिस पल से छूटना चाहते हैं
वहीं पे लाकर खड़ा कर देता है
पल विलीन तो होता है मगर
उसी पल एक और नया पल
जीवित हो जाता है और वोही
हमें यहाँ से वहाँ ले जाता है
ये पल भी बहुत कमाल होते हैं
जिसका इंतज़ार हों
वो रहे न भी रहें या साथ छोड़ दें
किन्तु पल के बिना कुछ नहीं
यही पल ही तो है
जो मानुष से क्या क्या बना देता है
विचारों से या साथ से
कोई पल अपना बना लें और
कोई आकर भी हमें छोड़ दें
पल का होना तो एक बहाना है मेरा-तुम्हारा
गुजरता पल नियति का खेल है सारा
हर पल का नया रोमांच भी है और गम भी
बेशुमार मिलता है जो भी मिलता है
बस उसी एक पल में !
*
पंकज त्रिवेदी
16 नवंबर 2018
बहुत कमाल लिखा आपने आदरणीय पंकज जी |आपका दर्शन एक नई अनुभूति करवाता है | सार्थक रचना के लिए हर्दिक बधाई और ब्लॉग के लिए हर्दिक शुभकामनायें | आशा है जल्द ही आपके मौलिक दर्शन की वजह से ब्लॉग लोकप्रिय ब्लॉग की सूची में शामिल होगा और नये लोग जुड़ेंगे |
श्वेता जी का आग्रह और आपकी मेहनत से यह ब्लॉग बन पाया है| आप दोनों का आभारी हूँ|
ReplyDeleteकिसी भी साहित्यकार को अपने लेखन के बारे में सकारात्मक प्रतिक्रिया मिले तो खुशी होगी ही| मैं भी उनमें से अलग नहीं हूँ| धन्यवाद|