नेह फूटता है निर्झर सा
बहता, तपता सा तुम्हारे मेरे
जीवन की सराबोर अनुभूतियों सा
छुअन, पसीजन, मृदुल अधरों सा
आँखों के पनीले और रूहानी सांसों को
स्पंदित करता प्यार मेरा
मैंने जब भी
तुम्हें मिलना चाहा
कुछ न कहकर जो भी कहा
तुम हमेशा हँसती रही
ठहाका लगाकर !
जैसे मेरे प्रस्ताव को तुम
गुब्बारा बनाकर
अपने हाथों में लिए लहराती हुई
समंदर की लहरों पर नाचती-गाती हुई
दूर-सुदूर चली जाती हों
और मैं
तुम्हारी अदृश्य होती परछाईं में
पिघलता रहता हूँ..
तुम हो कि जहाँ रुक जाती हों
वहीं होती है नेह की बारिशें
*
- पंकज त्रिवेदी
तुम हो कि जहाँ रुक जाती हों
ReplyDeleteवहीं होती है नेह की बारिशें... बहुत सुंदर
जैसे मेरे प्रस्ताव को तुम
ReplyDeleteगुब्बारा बनाकर
अपने हाथों में लिए लहराती हुई
समंदर की लहरों पर नाचती-गाती हुई
दूर-सुदूर चली जाती हों
और मैं
तुम्हारी अदृश्य होती परछाईं में
पिघलता रहता हूँ..!!!!!
वाह !पंकज जी कितना शालीन , सौम्य चित्र उकेरा है अनूठे अनुराग का | वाह के आलावा कुछ नहीं | अत्यंत भावपूर्ण रचना | सादर हार्दिक बधाई |
आदरणीया वंदना जी और रेणु जी, आप दोनों का स्वागत एवं धन्यवाद
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