ये पत्तों की सरसराहट से
मैं भी सोचता हूँ कि
जीवन का सत्य कहीं यह तो नहीं ?
जवानी के जोश में मन की हरियाली
फुर्तीली-गठीली देह पता नहीं कब
सूख जाएँगी और हवा के झोंके से
उड़ती हुई कहाँ कहाँ भटक जाएँगी ?
मन है - कितना कुछ सोचता है
नियति को कौन बदल सकता है मगर
हाँ, एक बात तय है कि मैं अब जानता हूँ
वक्त का पहिया और हवा का रूख कभी
स्थिर नहीं होता और न किसी का होता है
मैंने इस सरसराहट की मधुरता को
अपने मन के कोने में संजोकर रख दी है
प्रतिदिन इसी मधुरता के साथ अपने
पुरखों की बातों को याद करता हूँ
उनके अनुभवों को याद कर समझने की
कोशिश करता हूँ और हरबार एक नया अर्थ
एक नया विश्वास मुझे अपनी जवानी से
बुढ़ापे के बदलते रंग के साथ जीने का बल देता है
अब जीवन को मैं समझने लगा हूँ
कोई शिकायत नहीं कोई खुशी का अतिरेक नहीं
समय के प्रत्येक कालखण्ड से ताल मिलाकर
मैं जी रहा हूँ, खुश हूँ मैं इस ज़िंदगी से !
*
- पंकज त्रिवेदी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ दिसंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत प्रेरक जज्बा है आदरणीय पंकज जी | एक नया दर्शन -- और कालखंड से ताल मिलाना और निरंतर आगे बढना ही मुक्ति का द्वार है | सादर नमन |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDelete'जब आवै संतोस धन, सब धन धूरि समान.'
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पंकज त्रिवेदी जी. बहुत स्वस्थ और व्यावहारिक दृष्टिकोण ! हमारे जैसे बूढ़े तो - 'हाय ! वो भी क्या दिन थे !' का ही राग अलापते रहते हैं.
जीवन के हर मोड़ को सहज और परिपक्वता से स्वीकार कर अपना लेना बिना किसी शिकायत के। वाह बहुत सुन्दर।
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