सियासती दांवपेंच में आवाम खो जाती है
बंद कमरों में चीखें भी कभी सो जाती है
अखबार भी कितने मजबूर हो गए है
ख़बर कुचलकर तारीफ़ की जाती है
अख़बार भी सिकुड़कर बैठ गया है
लगता किसी पे लगाम लगाई जाती है
देश की आझादी के मायने बहुत है
बाहरी नहीं अपनों से पाबंदी लग जाती है
श्याम रंगी सियाही तो कागज़ श्वेत रहा
ख़ुशहाल ज़िंदगी डरकर दब जाती है
चंद हाथों में सत्ता का सिमट जाना यूँ
कलम के बंदों की तौहीन हो जाती है
तुम आवाज़ भी कैसे उठाओगे यहाँ
कौन सुनेगा झूठ की नदी बह जाती है
*
पंकज त्रिवेदी
17 अप्रैल 2019
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुंदर¡
ReplyDeleteतंज भी कटाक्ष भी खरा खरा।
बहुत खूब ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...समसामयिक..।
ReplyDeleteअभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ कहने भर को है। कहाँ सारा सच सामने आ पाता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस, वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteतुम आवाज़ भी कैसे उठाओगे यहाँ
ReplyDeleteकौन सुनेगा झूठ की नदी बह जातीहै
आजकल के हालात पर संही पंक्तियों के साथ ये शानदार हैं आदरणीय पंकज जी | सादर =