Saturday, January 12, 2019

प्रत्यंचा : 12-01-2018 : सेंट वेलेंटाइन डे : प्यार से मोक्ष की यात्रा - पंकज त्रिवेदी

ईसाई और ईसाई-प्रभावित संस्कृतियों से जुड़े हुए लोग वेलेंटाइन डे मनाते थे। इस दिन प्रेमी एक दूसरे से अपनी भावनाएं व्यक्त करते है। इस उत्सव के लिए भारत में समर्थन भी है तो कुछ लोगों में पश्चिमी अनुसरण के सन्दर्भ में गुस्सा और घ्रीना भी है। मगर इन सारी बातों का एक ही मंत्र है- प्यार । वास्तविकता तो यह है कि भारत ही ऐसा देश है जो प्यार से ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ कह सकता है, जो मूल रूप से प्यार की नींव पर ही है। फिर भी कुछ लोग इस परंपरा का विरोध करते हैं ऐसा माना जाता है कि वेलेंटाइन-डे मूल रूप से संत वेलेंटाइन के नाम पर है। परंतु सेंट वेलेंटाइन के विषय में ऐतिहासिक विभिन्न मत हैं और कुछ भी सटीक जानकारी नहीं है। 1969 में कैथोलिक चर्च ने कुल ग्यारह सेंट वेलेंटाइन के होने की पुष्टि की और 14 फरवरी को उनके सम्मान में पर्व मनाने की घोषणा की। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रोम के सेंट वेलेंटाइन माने जाते हैं।

1260 में संकलित कि गई 'ऑरिया ऑफ जैकोबस डी वॉराजिन' नामक पुस्तक में सेंट वेलेंटाइन का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार शहंशाह क्लॉडियस के शासन में सेंट वेलेंटाइन ने जब ईसाई धर्म को अपनाने से इंकार कर दिया था, तो क्लॉडियस ने उनका सिर कलम करने के आदेश दिए। कहा जाता है कि सेंट वेलेंटाइन ने अपनी मृत्यु के समय जेलर की नेत्रहीन बेटी जैकोबस को नेत्रदान किया व जेकोबस को एक पत्र लिखा, जिसमें अंत में उन्होंने लिखा था 'तुम्हारा वेलेंटाइन'। यह दिन था 14 फरवरी, जिसे बाद में इस संत के नाम से मनाया जाने लगा और वेलेंटाइन-डे के बहाने पूरे विश्व में निःस्वार्थ प्रेम का संदेश फैलाया जाता है।

संत वेलेंटाईनने भले ही प्यार का सन्देश दिया हो भारत में आचार्य रजनीश-ओशो ने भी यही संदेश दिया था। मगर उनकी सोच बेबाक थी। प्यार के नाम पर खुश होने वाले सेक्स के नाम से मुंह फुलाने लगते है। मगर कोइ भी इससे परे भी तो नहीं ! यह बड़ा ही सुखद आश्चर्य भी है। ओशो ने प्यार के साथ मानव मन का गहन विश्लेषण किया है। जो जितना खींचता हैं, आकर्षित करता है, उसे पा लेने से वो उतना ही मुक्ति पाने में आसान बन जाता है। कुछ पाने की चाह में जीना बड़ा ही अच्छा लगता है, मगर पा लेने के बाद आपके पास कोई चाह नहीं रहती। फिर उसके ज़रिये मुक्ति का आनंद प्राप्त करने का अवसर भी मिलता है! संतुष्टि के बाद उब जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह उब जाना ही मुक्ति मार्ग है।

हमारी संस्कृति में भर्तृहरि ने चार शतक लिखे है- नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक और विज्ञानशतक । भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक में स्त्री का पूर्णरूप से वर्णन किया है। हमारे ग्रन्थ कामशास्त्र में भी यही वर्णन है। मतलब यही कि हमारी प्राचीन संस्कृति में प्यार और सेक्स को अगर बुराई माना गया होता तो खजुराहो के शिल्प की रचना ही नहीं होती ! इसे विज्ञान और मनोविज्ञान के नज़रिए से देखें तो सारी बातें समझ में आती हैं।

वेलेंटाईन डे का विरोध करने से पहले उस उत्सव को मनाने की विकृत चेष्टा के खिलाफ जरूर विरोध करना चाहिए।

भर्तृहरि के श्रृंगारशतक में से यह एक ही श्लोक हमें सारा तत्वज्ञान सीखाता हैं -
ll एकी रागीशु राजते प्रियातामादेहार्धहारी हरोनीरांगेश्वपि यो चिमुक्ताललनासंगो न यस्मात्पर: ।
दुवार्रस्मरबाणपन्नगविषज्वालावलीढो जन: l शेष: कामविडाम्बितो हि विषयान्भोक्तुं न मोक्तुं क्षम: ||
अर्थात- रागी (संस्कार में आसक्त) पुरुषों में एक शंकर-शिव ही विराजमान है, क्यूंकि उन्हों ने अपनी प्रिया का अर्ध शरीर को हर लिया है और वैराग्य धारण करने वालों में भी स्त्री संग का त्याग करने वाले शिव ही विराजमान है। क्यूंकि शिव से बड़ा कोइ कामी पुरुष निवारण हो ही न सकें, ऐसे काम के बाणरूपी सर्प की ज़हरीली ज्वाला से विषय को भोगने के लिए मुक्त करने के लिए समर्थ नहीं, सिर्फ शिव ही समर्थ है। अभिप्राय - पार्वती के साथ विवाह होने से पहले मोह करने आये हुए कामदेव को शिव ने जलाकर भस्म किया है (यानी विजय प्राप्त किया है), इसीलिए शिव वैराग्य में भी शोभायमान है।

जब आप किसीको बहौत ही प्यार करने लगते है तो वो कामदेव की छाया जरूर है मगर धीरे धीरे उसी से उठकर मुक्ति और मार्ग की राह ही मिलेगी। अगर काम नहीं होता तो सृष्टि का सृजन ही कैसे होता? प्यार की सच्चाई के आधार पर ही काम और काम से आगे मुक्ति या मोक्ष की गति तक उठाना ही इंसानी धर्म है। मगर हम उस पर कहाँ तक खरे उतरते है वो हमारे संस्कार और विचारों पर निर्भर होता है। कीचड में भी कँवल अपनी पूर्णता साबित कर पाता है तो इंसान प्यार और नफ़रत की संकुचित मानसिकता के बीच झूलता हुआ नज़र आता है। प्यार को अगर पवित्र मानकर उसकी गरिमा के साथ आत्मसात किया जाएँ तो मुक्ति-मोक्ष के द्वार अपने आप दिखाई पड़ते है। गुलाब का एक फूल देने से न विकृति प्रकट होती हैं न प्यार भी... उसे सिर्फ एक प्रतीकात्मक रूप दिया गया है। मगर आज का दिन सच में प्यार की पूजा करने का उत्सव है। उत्सव को कैसे मनाएं यह प्रत्येक व्यक्ति का स्वतन्त्र अधिकार भी तो है ! शुभकामनाएँ।

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