Friday, January 4, 2019

खेल

कितना कुछ जान लेती हो तुम मेरे मन को

मेरे कुछ बोलने, न बोलने से ज्यादा मेरे मन के
भीतर तक पहुँच जाती हो तुम...!

एक एक सलवटों से मन के कोने से तुम
हर वो बात को जान लेती हो जो मेरे सुषुप्त मन की
गहराई में गड़ा है वो भी... !

तुम्हारा होना ही मेरी ज़िंदगी का सपना था और
जब तुम हो तो लगता है कि मुझसे ज्यादा ही तुम
मुझको जानने लगी हो... !

याद हैं तुम्हें कि उस रोज तुमने ही मेरे टूटे से दिल को
अपने प्यार के कच्चे धागों से पिरोया था और आकर
तुमने कहा था, लो ये दिल है... !

मैं देखता रहा था और तुम मुस्कुराती हुई कहती थी
अब कभी न टूटेगा तुम्हारा दिल, मैंने ही उन टुकडों को
जोड़ा है फिर से न टूटने के लिए...!

और तुम कितने ग़मों को संजोकर भी मुस्कुराती, मोरनी सी
नाचती थी मेरे पास और मैंने भी जान लिया था कि मेरी ही तरह
तुम भी टूटे दिल को सहलाती थी... !

यही ज़िंदगी हैं जिसके लिए हमें जीना होगा वो - 'तुम हो !'
यही कहते हुए दोनों कितने समर्पित हैं एक-दूजे के लिए
दुगनी ऊर्जा से सभर, रिश्तों की जड़ से जुड़े हुए
जान पे खेलने को तैयार हैं हम... !

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