Saturday, January 19, 2019

‘समय’ का पर्याय भानुभाई शुक्ल - पंकज त्रिवेदी

19 जनवरी 2019 : अखंड राष्ट्र (दैनिक)
लखनऊ और मुंबई -मेरा स्तम्भ - प्रत्यंचा
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कांग्रेस को कोसने वाले कटघरे में खड़े हो जाएंगे - पंकज त्रिवेदी
दो वर्ष पूर्व फेसबुक पर बचपन का मित्र राजेन शुक्ल दिखाई दिया। मैंने उसे मैसेज दिया और उतनी ही गर्मजोशी से उनका प्रत्युत्तर मिला था। हमदोनों मित्र रहें। माध्यमिक कक्षाओं में वो मेरे से एक वर्ष पीछे था। एक साम्यता थी हमदोनों में... क्रिकेट का ज़ुनून। बहुत कम बातें होती थी मगर आत्मिक स्नेह-सम्मान खूब। राजेन के पिता स्वार्गीय भानुभाई शुक्ल प्रखर गांधीवादी। गांधीजी और महर्षि अरविंद के विचारों को वो केवल पढ़ते नहीं थे, जीते भी थे। भानुभाई शुक्ल गुजरात के सुरेन्द्रनगर जिले के पत्रकारात्व में सबसे पहली पायदान का नाम। प्रखर एवं मुखर पत्रकार। जिन्हों ने इस जिले में ‘समय’ शीर्षक से पत्रकारात्व की एक नई दिशा खोल दी।
शायद पिछले महीने ही एहमद पठान मिल गया था। ख़ूब बातें हुई थी। एहमद और राजेन भी करीबी मित्र। एहमद के पिताजी और बड़े भाई निज़ामभाई के पास मैं पढ़ता था। यही सब कारण थे कि हम तीनों की दोस्ती बहुत कम मिलने पर भी अटूट रही। एहमद ने कहा कि – अमरीका से राजेन आया है। स्वाभाविक ही मेरी उत्सुकता बढ़ी। एहमद ने कहा मैं उनको आपका नंबर देता हूँ। वो आपसे बात करेगा। मित्रता में उम्र देखी नहीं जाती मगर एहमद और राजेन ने मेरी उम्र का लिहाज़ हमेशा रखा है। राजेन का कॉल आया और बचपन की दोस्ती जहाँ स्थित थी वहीं से मानों संवाद के तार जुड़ गए। दोनों में कहीं कोई ज्यादा फोर्मलिटी नहीं थी। बोला आप कहो तब मिलेंगे हम। दूसरे दिन हमदोनों ‘समय’ साप्ताहिक के ऑफिस पर मिले।

ऑफिस में प्रवेश करते ही ‘भाई’ यानी श्री भानुभाई शुक्ल की बड़ी सी तसवीर दिखाई दी, दूसरी और मानों खुद युवा भानुभाई ही बैठे हों ऐसा दिल से महसूस हुआ। वोही तो राजेन था। अद्दल भानुभाई की प्रतिकृति। वैसा ही चेहरा, लम्बे बाल और नमीं भरी आँखों पर चश्मे । मुझे देखते ही – ‘आवो पंकजभाई...’ कहते स्वागत किया और खड़ा हो गया। हमदोनों गले मिले। उनकी साँसों में अब भी वतन की धड़कन सुनाई दी। सालों से अमरीका में रहने के बावजूद वोही सरल-सहजता ने भानुभाई के संस्कार को बरकार रखा है। भाई के जाने के बाद उनके सहयोगी विरम डाभी ने ‘समय’ साप्ताहिक को संभाला है। राजेन उन्हीं के साथ ‘समय’ के बारे में चर्चा कर रहा था।

भानुभाई शुक्ल की जन्म शताब्दी चल रही है। उन्होंने सुरेन्द्रनगर जिले में 69 वर्ष पूर्वे ‘समय’ साप्ताहिक का आरंभ किया था। उनका उद्देश्य था कि दूर-दराज़ के गाँवों में बसते लोगों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाना।
उन समस्याओं को हल करने और सामाजिक संस्थानों की प्रवृत्तियों को भी उजागर करना। जब भी किसी गाँव में दुःख की घटना होती तो भानुभाई खुद जाकर पीड़ित परिवार से मिलते। उनके पास बैठकर दुःख को बाँटते। उस परिवार के लिए जो भी सरकारी, आरोग्य एवं सामजिक मदद की आवश्यकता पूर्ण करते। भानुभाई खुद भी कई सामाजिक संस्थानों में सेवारत थे। उस ज़माने में पीड़ित बहन-बेटियों के लिए ‘विकास विद्यालय, वढवाण’ में आश्रय और शिक्षा दिलाते। शहर में सेवा भेखधारी श्री नागजीभाई देसाई एवं श्रीमती शांताबहन देसाई ‘बालाश्रम’ चलाते हैं। वहीं अनाथ बच्चों को प्रवेश देकर उनकी शिक्षा का प्रबंध किया जाता था। शहर में कई जैन अग्रणीओं के सहयोग एवं सरकारी ग्रांट से ये सारी संस्थाएं चलती थी। भानुभाई शुक्ल ने ‘समय साप्ताहिक’ को अपने बलबूते पर इस जिले का प्रथम अखबार बनाया।

मेरे पिता गुजराती कवि थे। अमृत त्रिवेदी ‘रफ़ीक’। इसी जिले के लीमली गाँव में वो सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे। ये वोही लीमली गाँव हैं जहाँ देश के प्रखर दर्शनशास्त्री पंडित सुखलाल जी का जन्म हुआ था। मुझे याद है, उस ज़माने में पंडित जी मुम्बई रहते थे। मेरे पिताजी ने गाँव के लोगों के बीच एक प्रस्ताव रखा था। गाँव की स्कूल को ‘पंडित सुखलाल जी विद्यालय’ नाम दिया जाएं। सभी सहमत हुए। उस नामकरण के समय गुजरात के तत्कालीन राज्यपाल श्रीमन्नारायणन पधारे थे। सुरेन्द्रनगर जिला होने के कारण सरकारी पदाधिकारी, राजनीतिज्ञ, राज्य के पत्रकार आदि उपस्थित थे।

भानुभाई शुक्ल और मेरे पिताजी को जोड़ती कुछ कड़ियाँ थी। दोनों गांधीजी और महर्षि अरविंद के विचार से प्रेरित थे। गुजराती कवि सुन्दरम् और साहित्यकार दिलीप राणपूरा भी उनमें थे। मेरे पिताजी गाँव में आती एक ही बस के कंडक्टर के साथ समाचार लिखकर भानुभाई को भेजते। इस तरह से दोनों के बीच मैत्री और सदभाव था। कभी गाँव में कोई घटना होती तो भानुभाई जीप कार लेकर आते। गाँव में प्रवेश करते ही विद्यालय प्रांगण। उसीमें सरकारी क्वार्टर में हम रहते थे। भानुभाई आते, मेरे पिताजी से मिलते और दोनों गाँव में पीड़ित के घर जाते। सहृदय से उस परिवार को आश्वासन देते और उनकी दुविधा को समझते। हर प्रकार से उनकी मदद करते।

भानुभाई केवल पत्रकार नहीं थे। वो अच्छे साहित्यकार और चित्रकार भी थे। वो आध्यात्मिक फिलोसोफी को खूब समझते थे। वो ब्राह्मण होते हुए कभी कर्मकाण्ड में नहीं मानते थे। उन्हें तो धुन थी कि पत्रकारात्व के माध्यम से किसान, पिछड़े वर्ग के लोगों और मरीजों के दर्द को बाँटना था। संस्थानों के माध्यम से गाँवों के बच्चो को शिक्षा मिले उसके लिए कार्य करना था। भानुभाई ने कभी ‘यलो जर्नलिज़म’ के बारे में सोचा भी न था। उन्हों ने सिर्फ अपने जिले के आम जन की आवाज़ उठाई थी। उनके अधिकारों के लिए लड़ते रहे। मज़दूरों के प्रश्नों भी उठाया। भानुभाई के जाने के बाद उनके अग्रज सुपुत्र श्री राहुल शुक्ल ने गुजरात में ‘साहित्य-कला चंद्रक’ (एक लाख) और स्थानीय साहित्यकार-पत्रकार, शिक्षक या समाजसेवी के लिए 20 हज़ार का पुरस्कार देना शुरू किया है। आझादी के बाद भानुभाई शुक्ल इस जिले में प्रहरी बनकर पत्रकारात्व करते रहें। उन्हें लोग न भूले हैं, न भूलेंगे।

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