दियासलाई
कोई जला रहा है
सियासत के नाम
इस्तीफ़ा देकर
आग से कूदता है कोई
दियासलाई
जलती हुई सफ़ेद, पीला,
केसरी रंग धारण करती है
ध्वजा फरफराती है
टेंट के शिखर पर
बंदूक की नोंक के घेरे में कैद
दियासलाई
की गिनती शुरू होने को है
चारों तरफ राख़ के ढेर में
दबी हुई आग में गिनती के बाद
समर्पित कर दी जाएगी और
फ़ैल जाएगी तुम्हारे मेरे घर में
दियासलाई
जलाती है अमीर-गरीब के घर में
चूल्हे को जहाँ रोटी पकाती है माँ
कहीं खुद पकती है एक विधवा
ज़िंदगी भर का दर्द सहकर
गालियाँ खाती है अपने मुखिया की
भूल जाता है वो अपनी माँ को जो
खुद विधवा होकर नहीं पा सकी
बेटे का सुख, न ले सकी उन पर गर्व
दियासलाई
धीरे धीरे सत्ता के मद में फ़ैल रही है
फूल रही है मानव बम बनकर जो
कभी केसरी, कभी हरे तो कभी
नंगे शरीर में फटता है और अनगिनत
पेट की आग उठती है बेकारों के जिस्म से
जला देती है सत्ता से महासत्ता को
जो आज बन गई है अघोषित तानाशाही !
*
पंकज त्रिवेदी
10 दिसंबर 2018
दियासलाई का विभिन्न आयामों में अद्भुत प्रयोग आदणीय
ReplyDeleteऔर “पेट की आग उठती है बेकारों के जिस्म से
जला देती है सत्ता से महासत्ता को” यह पंक्ति यो ब्रह्म अस्त्र के समान ही है।
श्रेष्ठ रचना
प्रिय अमित निश्छल जी, आपने पंच लाइन पकड़ ली. आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteदियासलाई
ReplyDeleteधीरे धीरे सत्ता के मद में फ़ैल रही है
फूल रही है मानव बम बनकर जो
कभी केसरी, कभी हरे तो कभी
नंगे शरीर में फटता है और अनगिनत
पेट की आग उठती है बेकारों के जिस्म से
जला देती है सत्ता से महासत्ता को
जो आज बन गई है अघोषित तानाशाही !... बेहतरीन रचना
प्रिय अटूट बंधन, कविता के मर्म को आपने स्पष्ट किया. आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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