जब भी
खुलती है खिड़की
दिखता है तेरा चेहरा
और
हवा की लहर दौड़ आती है और
उन पर सवार आँगन के तुलसी की
ताज़गी...... और
गुलाब की पत्तियों की खुशबू...
उसके गुलाबी रंगों पर बिखरी हुई धूप से उभरती चमक
प्रफुल्लता की सारगर्भित सोच
और
नई दिशाएं खोलती है ये खिड़की
जब भी खुलती है...
तेरा चेहरा दिखता है और
खिड़की खुलती है तो भी -
शायद तुम नहीं कि कल्पना से ही
मेरी डायरी के पन्ने
पीले पड़ने लगते है...
जैसे की पतझड़... !
सुंदर कविता
ReplyDeleteVery nice poem
ReplyDeleteआदरणीया वंदना ही और श्री मेहता जी, आप दोनों का धन्यवाद
ReplyDeleteवाह !!! किसी का होना बसंत और ना होने की कल्पना पतझड़ !! सुंदर रचना आदरणीय पंकज जी -- सरस और हृदयस्पर्शी !!!!!!!
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