Sunday, December 2, 2018

खिड़की












जब भी
खुलती है खिड़की
दिखता है तेरा चेहरा 
और
हवा की लहर दौड़ आती है और
उन पर सवार आँगन के तुलसी की
ताज़गी...... और
गुलाब की पत्तियों की खुशबू...
उसके गुलाबी रंगों पर बिखरी हुई धूप से उभरती चमक
प्रफुल्लता की सारगर्भित सोच
और
नई दिशाएं खोलती है ये खिड़की
जब भी खुलती है...
तेरा चेहरा दिखता है और
खिड़की खुलती है तो भी -
शायद तुम नहीं कि कल्पना से ही
मेरी डायरी के पन्ने
पीले पड़ने लगते है...
जैसे की पतझड़... !



4 comments:

  1. आदरणीया वंदना ही और श्री मेहता जी, आप दोनों का धन्यवाद

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  2. वाह !!! किसी का होना बसंत और ना होने की कल्पना पतझड़ !! सुंदर रचना आदरणीय पंकज जी -- सरस और हृदयस्पर्शी !!!!!!!

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