Wednesday, November 14, 2018

रिश्तों की कतरन





मैं देख रहा था उन्हें
रिश्तों की कतरन करते हुए निर्ममता से 
बेपरवाह होकर, न चेहरे पर कोई शिकन
न उमड़ते प्रसन्नता के भाव और
न आँखों से टपकती नमीं...

उन्हें लगता था कि
न कोई उन्हें देखता है और अगर
देखें भी तो उन्हें क्या?
बेफ़िक्र था वो और हाथ खूब
चल रहे थे बेहरमी की कैंची पर

सोचता हूँ कि इंसान कितना बदल रहा है
डिजिटल इण्डिया के साथ और विकास के नाम
हर कोई काली सडकों पर भागता हुआ
नज़र आता है जैसे वो काली नागिन पे
सवार होकर दिलों-दिमाग में भरा हुआ
ज़हर उगल रहा है....

इंसानियत और संवेदना इतिहास बन गया है
गाँव, खेत-खलिहान और मंदिर के चौराहे पे
नहीं होते भजन-संध्या आरती और बुजुर्गों के
अनुभवों की वो बातें.. पोखर के किनारे फैले
बरगद के पेड़ों के झूले के साथ बहती ठंडी हवा 

कैसे जी पाऊंगा मैं और कैसे ताल बैठेगा
मेरे जीवन का इस नई पीढी के साथ और  
बदलती देश की सूरत को देखकर
सिकुड़ जाता है मेरा मन...

कोसता रहता हूँ खुद को इंसान के रूप में
जन्म क्यूं लिया मैंने... अच्छा होता अगर
मैं गौ बनकर जन्म लेता और किसी नेता के
जश्न में मेरे गौमांस से मेजबानी होती
और सारे देश में विकास के नाम चर्चाएँ
ज़ोर पकड़ती समाचार चैनलों के लिए
मसाला परोसती जैसे कोई बानगी
*


2 comments:

  1. जिअवं की कडवी सचाइयों से आक्रांत मन की का ये चिंतन बहुत ही मर्मस्पर्शी है | मानव होकर मानव के ही अनैतिक और पाशविक कृत्य देखना बहुत मर्मान्तक है | मानव से बेहतर पशु होने की कल्पना उसी आक्रांत मन की आंतरिक वेदना है | सार्थक लेखन की शुभकामनायें | सादर -

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    1. कभी कभी समाज में इंसानों के द्वारा निंदनीय कृत्य होते हैं तो मन को झकझोर देती है... कष्टदायक होता है. धन्यवाद

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