Monday, February 4, 2019

आज की शाम - पंकज त्रिवेदी


















आज की शाम
उन सभी शामों की सूचि में शामिल हो गई
ठीक उसी समय खिडकी के आगे बैठना
दूर दूर तक फैला हुआ सा मैदान और मैं
मेरी तरसती आँखें और...
'हाँ ! तुम जरूर आओगी" का इंतज़ार !

आज की शाम
बोझिल सी, थकी सी अनचाहें पलों का
बोज बनकर दबे पाँव सरक रही है
मेरी ओर धीरे धीरे .........
इंतज़ार के पल में घूल जाती है बेसब्री
आशंका और कुछ हद तक छुपा हुआ डर

आज की शाम
सोचा था कर दूं तुम्हारे नाम और
यही सोचकर हर शाम डूबते हुए सूरज को
देखता हूँ हर दिन एक नए सूरज को मैं खुद
अपने हाथों से बहा देता हूँ समंदर के पानी में
मेरे हाथों में अब वो जलन ही कहाँ बच पाई है
जो पहले दिन की शाम तुम्हारे इंतज़ार में
सूरज को हाथ में लेकर मैंने ही उसे डूबो दिया था

आज की शाम
सोच तो वोही पुरानी है, भरोसा है तुम पर कि
'हाँ ! तुम जरूर आओगी" - मगर मेरे अंदर से
हर दिन मेरे अस्तित्व का एक एक पूर्जा
टूटने लगा है और मैं झुकने लगा हूँ जैसे
बेबस वृद्धत्व का बोज उठाकर चलता हुआ आदमी !

आज की शाम
सूरज खुद ढलने लगा है कुछ असमंजस सा
मुझ से नज़रें चुराता हुआ जल्दी से पलायन होने को
और मैं भी आँखों को मूंदकर बैठा हूँ
अब न सूरज को डूबना होगा और न तुम्हारे आने का
इंतजार होगा कहीं भी.....

चाहें कितना भी टूट जाऊँ मैं अंदर से हर दिन
मगर तुम जानती हो कि मेरी रूह कभी मुझे
बिखरने नहीं देती और मैं बिखरने से पहले
एक बार फिर से खड़ा हो जाता हूँ आने वाले
कल की उस शाम के इंतज़ार के लिए
जो तेरे इन्तजार के लिए मैंने
संजोकर रखी हुई है आज भी !
***




2 comments:

  1. बेहद मार्मिक हृदयस्पर्शी... मन छूती अभिव्यक्ति सर...निःशब्द हूँ।

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  2. दर्द की चरम सीमा
    अद्भुत

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